दस्तान-ए-निस्बत

कभी कभी ये कायनात यूँ कुछ अनूठी-सी लगती है कि मानो वो कोई अजनबी शक्स यार हो जाता है कुछ ऐसी ही है हमारे याराना की वो हसीन दस्तान जो मीलों दूर रहकर भी एक ऐतबार-सा जगा जाता है। यूँ तो लोग कहते हैं कि खुबियों से होती मोहब्बत सदा लेकिन ऐ दोस्त, तेरी तो खामीयों ने भी इस दिल को लूटा। किन लफ़्ज़ो में तेरी हर वो अदा बयान करूँ जिन्होनें मेरे इस क़ल्ब के हर किश्त में पनाह लिया किन अल्फ़ज़ो में तेरे उन मासूम शरारतों का ज़िक्र करूँ जिन्होनें ना सिर्फ़ हँसाया, बल्कि एक अनोखे अपनेपन का एहसास भी जताया। शायद तेरा मिलना है उस रब का इशारा कि ज़िदगी की हर कसौटी का एक तू ही सहारा। वो बचकानी नोक-झोक और तेरा मनाना फ़िर "मूर्ख हो तुम" कहकर तेरा मुझे हँसाना वो अफ़्रिकी सिन्धुओं की चर्चा होती बड़ी निराली "तुम्हें अफ़्रिका छोड़ आएँगे हम" कहकर, तुने तो हद्द ही कर दाली। यक़िन नहीं होता कि समय गया यूँ इस कदर बीत कि दो नावाकिफ़ बन गए इतने पक्के मीत। यूँ तो न कभी मिलें, न कोइ निस्बत है हमारा फ़िर भी न जाने क्यूँ लगता है कि...